by  डॉ ऋचा शुक्ला

सीता थी सुकुमारी थी, जनक की दुलारी थी ,
बलिका थी कुंदन-सी, ह्रदय का स्पंदन थी .
मेघों संग विचरती, हिरणों संग खेलती ,
वायु का अंचल, केशों में वन-हरियाली थी .

मृदा का तन, ज्वाला-सा मन,
उर-ओज, शीतल – शत – शरद , श्यामल कुशल श्रृंगार थी .
कर ले नियंत्रित जो नियति , वह शक्ति अपरंपार थी,
थी कर-कमल से लक्ष्मी, और ज्ञान का भंडार थी .


दशरथ-वधू, रानी-अवध ,साम्राज्ञी अत्यंत विराट थी .
तन-तनाव , मन-भंगिमा, चित्त पर लगा पूर्ण-विराम थी,
थी ब्रह्म ज्योति प्रकाश, तप-बल, श्रीराम का वो मान थी
रक्षा करे इस सृष्टि की, असहाय फिर क्यों जानकी?

किंचित वचन से बद्ध थी, निःशब्द ह्रदय विचार में ,
उस कपट-मन का सामना करती रहूँ तृण-ओट से ?
या, चक्षु की ज्वाला भयंकर, रौद्र शंकर गर्व से,
सत का करूँ कल्याण मैं या अंत कर दूँ पाप का ?

दुविधा उफानें मारती , रहती विकल-सी जानकी,
न रुके कभी , न थके कभी , निर्विराम , निःसन्देह-सी .
श्रीराम की थी आस, पर वो आस जीवन श्वास-सी,
हे राम ! सब निःशब्द है, पर राह देखे जानकी….

युग बदल गया, दिन चले गए ,
नित चेहरे सारे बदल गए .
पर एक सिया है शेष अभी,
कुछ तुम में भी, कुछ मुझमें भी .

सारी बातें तो वही रहीं , बस दुविधा मन की बदल गयी,
‘हा ! कहाँ गये तुम राम मेरे?’ पल-पल पूछे ये अन्तर्मन .
क्या राम अभी भी होते है?
क्या प्रीत अभी भी होती है ?

About the Author

Dr. Richa Shukla is an Indian writer, and academician. She is presently working as Assistant Professor of English Literature at B.K. Academy, University of Lucknow. She has been the faculty of English Literature at Deen Dayal Upadhyaya College, University of Delhi. With a teaching and research experience of more than 15 years, she has authored and co-authored several books and published research papers, articles, essays, etc. of national and international repute. Her writings often explore the themes of Feminism, Philosophical Counselling, Indian Knowledge Tradition and have been praised for interdisciplinary and thought-provoking approaches.

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